Friday, November 28, 2014

क्यों बना अमिताभ बच्चन एक महानायक


अमिताभ बच्चन केवल एक नाम नहीं हैं ,यह एक पर्याय हैं उस युग का जिसे भ्रष्टाचार ,बेरोजगारी के विरुद्ध क्रान्ति का युग भी कहा जा सकता हैं ,उस युग को इस शख्स की आवाज़ ने जो क्रांतिकारी बल प्रदान किया वो अतुलनीय एवं अविस्मर्णीय हैं ,सवाल यह उठता हैं इस आदमी में या इसके काम में ऐसा क्या था जो उस समय के साथ अनुनादित हुआ मैंने काफी विचार किया और कुछ फिल्मों के दृश्यों को चिन्हित किया जो मुझे समझ आते हैं की अमित जी के उस चरित्र को दिखाने में काफी योगदान देते हैं ,उनके कुछ अंश और उनके सिनेमेटिक अनुभवों को आपके सामने प्रस्तुत करने की एक कोशिश कर रहा हूँ ,
मेरा बाप चोर हैं फिल्म दीवार का वो द्रश्य जिसमे कुछ लोग विजय के हाथ में लिख देते हैं की मेरा बाप चोर हैं उस समय की कुप्रस्थितियों को सांकेतिक करता हैं सलीम जावेद साहब के ज़रूर समाज से कुछ न कुछ तो वैचारिक मतभेद होंगे जिसके चलते उन्होंने यह डायलॉग लिखा की एक व्यक्ती जो एक आन्दोलन का लीडर हैं वो कैसे दबाब में आकर प्रबंधन की सारी शर्तों को मानते हुए हर मजदूर को बेच के बाहर निकलता हैं मगर समाज उसे चोर ,रिश्वतखोर समझते हुए उसके लड़के के हाथ में उसकी जात अंकित कर देता हैं ,उस लड़के का अंतर्विरोध ,मानसिकता ऐसे हालात में क्या रहेगी ,उसके विचार कैसे पनपना शुरू होंगे इस सोच को बच्चन साहब ने जिस इंटेंस तरह से परदे पे जिया हैं वो एक सिनेमेटिक अनुभव हैं |
में फैके हुए पैसे आज भी नहीं उठाता खुद्दारी से ओतप्रोत यह शब्द आज भी जनमानस में चेतना भर देते हैं ,यह शब्द समाज में चल रही आर्थिक असमानता को चोट करते हैं ,जब विजय डाबर साहब के ऑफिस की खिड़की से बाहर अपने अतीत में झाकता हैं तो उसे असफलता की ठोकरें ,मजबूरियाँ ,समाज का गरीबो के प्रति अनैतिक आचरण सब दिखाई देता हैं ,वो अपनी पहली सफलता पे गर्व करता हैं चाहें वो कानून के खिलाफ हो और जब डाबर साहब उसे उसका इनाम देते हैं तो जिस खुद्दारी से वो डाबर को अपने इस सफ़र को छोटी से कहानी से बताकर जब यह बोलता हैं की में आज भी फैके हुए पैसे नहीं उठता तो वो विजय समाज के हर उस व्यक्ति का आदर्श बन जाता हैं जो इस मजबूरी में दबा कुचला हैं ,आर्थिक असमानता और सामाजिक अनेतिकता का शिकार हैं |
जब यह बिल्डिंग बन रही थी तो मेरी माँ ने यहाँ इटें उठायी थी सिनेमा समाज का चेहरा होती हैं और फिल्म दीवार ने इस पंक्ति को जिया हैं ,अगरवाल जैसा व्यापारी जब विजय को कहता हैं यह बिल्डिंग तुम महेंगी खरीद गए तुम चाहते तो में इसके २ ३ लाख कम कर देता, विजय का वो जवाब सुनकर हतप्रभ रह जाता हैं जो मानवीय भावनाओ और संवेदनाओं का परिचायक हैं अगरवाल साहब अगर आप इसके ३ ४ लाख और भी मांगते तो में दे देता क्यूंकि जब यह बिल्डिंग बन रही थी तब मेरी माँ ने यहाँ इटें उठायी थी विजय की समाज के प्रति विरोधों को प्रदर्शित करता हैं एवं विजय की उस गर्व की अनुभूति को दिखाता हैं की आज वही बिल्डिंग वो अपनी माँ के चरणों में भेट करने वाला हैं |
मेरे पास माँ हैं विजय का अपने भाई के साथ वाद विवाद का यह द्रश्य वैचारिक दृष्टिकोण के टकराव को अंकित करता हैं |यह द्रश्य एक बात तो सीधे तरह से कह जाता हैं की सामजिक परिवेश और आदमी के अपने अनुभव उसकी सोच और विचारधारा तय करते हैं
मीना का इन्तेजार फिल्म शराबी का वो द्रश्य जिसमे अमिताभ अपनी प्रेमिका मीना का अपने जन्मदिन पे इन्तेजार करते हैं कहना होगा सिनेमाहाल में बैठा हर शख्स उस दिन मीना का इन्तेजार कर रहा होगा और शायद उसके आने की प्रार्थना भी ,लोग तो यहाँ तक कहते हैं की उस दिन अगर मीना नहीं आती तो शायद रामपुर से कभी सांसद न बन पाती ये तो उस दिन मीना के जन्मदिन में आने का ही कर्ज था जो अमिताभ बच्चन के प्रशंसको ने अदा किया और रामपुर से मीना को विजयी बनाया |
तुम्हारा नाम क्या हैं बसंती अमिताभ की कॉमिक टाइमिंग का इससे अच्छा उदहारण कोई और नहीं हो सकता और रेलवे स्टेशन से ठाकुर के घर तक का तांगे का सफ़र कोई अमिताभ का चाहने वाला नहीं भूल सकता जिसमे अमिताभ जी ने अपनी गजब कॉमिक टाइमिंग का प्रयोग करके दर्शको को मनोरंजित किया |
डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन हैं डॉन के वर्चस्व को स्थापित करता यह डायलाग आज भी अमिताभ की उस बेहतरीन आवाज़ और इंटेंस आँखों को दिमाग में तरों ताजा कर देता हैं ,अदभुत अभिनय क्षमता का यह बेजोड़ उदहारण हैं |

इसके अलावा अमिताभ बच्चन के डायलाग्स की अनगिनत लिस्ट हैं जिसे उन्होंने उस सोच के साथ परदे पे प्रस्तुत किया हैं जिस सोच के साथ वो लिखे गये लेकिन सलीम जावेद को भी उस समय की सामाजिक विषमताओ और वातावरण का आन्दोलनकारी अध्यन करने के लिए श्रेय देना चाहिए समाज का जो प्रारूप उन्होंने सिनेमा के द्वारा लोगो के सामने रखा और बच्चन साहब ने उनको जिस तरह से परदे पे जिया मुझे उस सदी के लोगो से जलन होती हैं जिन्होंने उस वक़्त के अमिताभ को अभिनय करते देखा क्या सिनेमेटिक अनुभव हैं ,अदभुत |

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